मनोज श्रीवास्तव जी की कलम से ..

जितना अटेंशन देना चाहिये हम उतना नहीं देते हैं। अल्पकाल के लिये फुल अटेंशन रखते हैं, फिर धीरे-धीरे फुल शब्द समाप्त हो जाता है और शेष अटेंशन रहता है। उसके बाद धीरे-धीरे परिस्थितियों और परीक्षाओं के दबाव में अटेंशन टेंशन में बदल जाता है। फिर दवा की युक्ति मुक्ति नहीं दिलाती है। इसके बाद हम चिल्लाते हैं कि चाहते हुये भी काम क्यों नहीं होता है। इगो से भी परहेज करना जरूरी होता है।

इसके अलावा ट्रस्टी बनना भी है। लेकिन हम ट्रस्टी के बजाय गृहस्थी बन जाते हैं। गृहस्थी को गधे के रूप में दिखाया गया है, जो अनेक प्रकार के बोझ लिये घूमता है। जब हम ट्रस्टी से गृहस्थी बन जाते हैं तो मेरेपन का अनेक बोझ आता है।

इसमें प्रमुख बोझ का बोल है, यह मेरी जिम्मेदारी है इसे तो निभाना ही पड़ेगा। गृहस्थीपन में अनेक रस में समय गंवाते हैं। कभी कर्ण रस में समय गंवाते हैं, जीभ रस में समय गंवाते हैं। लेकिन हम भूल जाते हैं कि यह तन मेरा नहीं है, मैं केवल तन का ट्रस्टी हूं। ट्रस्टी मालिक के बिना किसी वस्तु को अपने प्रति यूज नहीं कर सकता है। इस परहेज की कमी के कारण जो युक्ति चलते हैं उससे मुक्ति नहीं मिलती है।

मुक्ति पाने के लिये ट्रस्टी बनना होगा। सब परमात्मा की जिम्मेदारी है। मेरी कुछ भी जिम्मेदारी नहीं है। इस स्मृति से हम हल्के बन जायेंगे, फिर जो सोचेंगे वही होगा। हम चलने वाले या दौड़ने वाले नहीं हाईजम्प लगाने वाले बन जायेंगे। इससे हमारा रोना, चिल्लाना बन्द हो जायेगा और अपनी शिकायतें और परिस्थतियों की शिकायतें आनी बन्द हो जायेंगी।

स्व पर राज्य करने वाले अपने उपर पूरा नियंत्रण रखते हैं। जब जिस शक्ति द्वारा जो कार्य कराना चाहते हैं, वही कार्य सफलतापूर्वक करने का अनुभव करते हैं। स्व पर राज्य करने के लिये अपने को चेक करके चेंज करना होगा।
हम जानते हैं, मानते हैं और सोचते हैं, लेकिन कर नहीं पाते हैं। युक्ति बहुत चलाते हैं, लेकिन मुक्ति को नहीं प्राप्त करते हैं। इसके पीछे एक छोटी से गलती व भूल है, जो हम इस भूलभुलैया के चक्कर काटते हैं।

दवाई चाहे जितनी बढ़िया हो और अपना सही डोज भी ले रहे हों, लेकिन एक बार भी परहेज नहीं करने से अर्थात जो वस्तु स्वीकार करनी थी, उसे न स्वीकार करके कुछ और स्वीकार करते हैं तब वह दवाई हमें ब्याधि से मुक्ति नहीं दिला सकती।
हमें नाॅलेज रूपी दवाई लेना है। हम चेक करें यह यथार्थ और वह अयथार्थ है।

हमें यह करना चाहिये या नहीं करना चाहिये, यह राॅग है और यह राइट है और यह हार है, वह जीत है, इसकी समझ बुद्धि में रहनी चाहिये। इसके प्रमाण दवाई का सही डोज लेना चाहिये।

कोई दवा तभी फायदा करती है, जब परहेज किया जाये। पहली परहेज है, नियम ओर मर्यादा का पालन करना। इसी स्मृति और समर्थी में रखकर कहीं अपने को धोखे में नहीं रखना है। नियम मर्यादा के मार्ग में कोई व्यक्ति, वैभव व सम्बन्ध सम्पर्क अथवा कोई साधन स्मृति में न आने पाये। इस परहेज के प्रति लापरवाह होना, वातावरण के प्रभाव में आ जाना या संघ दोष से विचलित हो जाने पर दवा फायदा नहीं करती। अव्यक्त बाप-दादा महावाक्य मुरली 20 अक्टूबर, 1975

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