हरिद्वार – अखिल विश्व गायत्री परिवार प्रमुख श्रद्धेय डॉ प्रणव पण्ड्या ने कहा कि नवरात्र साधना साधक को भटकन से बचाती है। साधक का चहुंमुखी विकास होता है और साधक को भौतिक व आध्यात्मिक लाभ भी प्राप्त होता है। साधना के साथ श्रेष्ठ साहित्यों का स्वाध्याय और इसका चिंतन, मनन करने विवेक का जागरण होता है। विवेक का अर्थ दृश्य तथा दृष्टा की भिन्नता का निश्चित ज्ञान होना है।
 

युवा उत्प्रेरक श्रद्धेय डॉ पण्ड्या देश-विदेश में अपने-अपने घरों में नवरात्र साधना में जुटे साधकों को वर्चुअल संदेश दे रहे थे। उन्होंने कहा कि मनोयोगपूर्वक की गयी साधना साधक को समाधि की प्राप्ति हो सकती है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि समाधि से ज्यादा आनंद देने वाला दूसरा कुछ नहीं है। श्रीमद्भगवतगीता के दूसरे अध्याय का उल्लेख करते हुए डॉ पण्ड्या ने कहा कि इस दुनिया में समय-समय पर कुछ न कुछ उथल-पुथल होती रहती है, उसका फल कभी सुख देने वाला, तो कभी दुःख देने वाला होता है, जबकि उच्च कोटि के साधक अपने आप को समभाव में रखकर इच्छित लक्ष्य में लीन रहता है। पाप-पुण्य को भेद का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि जिस तरह हमारे सैनिक देश की रक्षा करने के उद्देश्य से आतताइयों को मार गिराता है, यह महापुण्य है। जबकि किसी निर्दोष व्यक्ति की हत्या पाप कहलाता है। गायत्री साधना से पाप-पुण्य का भेद करने की वैचारिक शक्ति बढ़ती है।


अध्यात्मवेत्ता श्रद्धेय डॉ. पण्ड्या ने कहा कि गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि बुराइयों को त्यागकर अच्छाइयों की ओर चलो। इस नवरात्र साधना में साधक को अच्छाइयों की ओर अग्रसर होने का प्रयास करना चाहिए। उन्होंने कहा कि महर्षि पतंजलि ने दुःख के तीन प्रकार अर्थात् परिणाम, ताप एवं संस्कार बताए हैं। इसके अन्तर्गत बताए गए ताप दुःख को स्पष्ट करते हुए कहा है कि ताप दुःख समस्त चेतन एवं अचेतन कारणों से होने वाला वह दुःख है, जिससे कोई भी मनुष्य दुःख के समय उसके कारणों से द्वेष का भाव रखता है।

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