मनोज श्रीवास्तव जी की कलम से ..

कम्पलेंट समाप्त होने पर कम्पलीट बन जाते हैं। हम तीन स्तरों पर अपना शिकायत करते हैं। पहला स्वयं से शिकायत जैसे-मैं यह काम क्यों नहीं कर पाता हूं, दूसरा औरों से शिकायत लोग हमारी मदद क्यों नहीं करते हैं और तीसरी स्तर की शिकायत के अन्तर्गत हम परमात्मा की भी शिकायत करते हैं, जब वह सर्वशक्तिमान है, तब हमारे भाग्य की लाटरी क्यों नहीं निकाल देते हैं, अपने नजरों से निहाल क्यों नहीं कर देते।

आत्मिक रूप में स्थित होने, साक्षी होकर अपने पार्ट को देखने के अभ्यास से हम मजबूत होते हैं। इसलिये साक्षीपन की स्टेज की स्मृति हमें समस्याओं से और अनेक प्रकार की शिकायतों से दूर रखती हैं। साक्षीपन की स्टेज का अर्थ एक श्रेष्ठ संकल्प के अलावा किसी से भी दिल के लेनदेने की संकल्प मात्र का अनुभव न हो। यदि एक साथ सर्व सम्बन्धों का अनुभव हो तब हमारी बुद्धि जा नहीं सकती। सर्वश्रेष्ठ संकल्प में हज स्वांस, हर संकल्प की बृद्धि मगन रहनी चाहिये।

कई लोगों की कम्पलेंट होती है कि हमें व्यर्थ संकल्प बहुत आते हैं इसलिये हमारी बृद्धि श्रेष्ठ संकल्प पर नहीं टिकती है। न चाहते हुये भी कहीं न कहीं बृद्धि का लगाव चला जाता है। अथवा स्थूल प्रवृत्ति की जिम्मेदारी बुद्धि को एकाग्र नहीं होने देती है। हमारे पुराने दुनिया का सम्पर्क व वातावरण हमारी वृत्ति व दृष्टि को चचंल बना देती है। इसलिये जितना तीव्र पुरूषार्थ करना चाहिये, उतना नहीं कर पाते हैं या हाईजम्प नहीं दे पाते हैं।

हम इसके चलते अपने स्वभाव, संस्कार से मजबूर हो जाते हैं। प्रश्न है, जब हम अपने स्वभाव संस्कार को मिटा नहीं सकते तो बाहरी दृष्टि में आसुरी संस्कार मिटाने वाले निमित्त कैसे बनेंगे। जो अपने ही संस्कार के बस में हो जायें, वह सर्व वशीभूत हुई आत्मओं को मुक्त कैसे कर सकेंगे। जो अपने ही संस्कारों, जिससे स्वयं ही परेशान हैं, वह दूसरों की परेशानी कैसे दूर कर सकते हैं।
कर्म करने से पहले स्वभाव संस्कार के संकल्प बहुत आते हैं। यह कर दूंगा, ऐसा होना चाहिये, यह अपने को क्या समझते हैं, मैं भी सब जानता हूं इत्यादि। इसलिये कम करने से पहले अपने संकल्पों को चेक करने की आदत व अभ्यास डालना होगा। सकल्पों को पहले चेक करना होगा कि यह श्रेष्ठ संकल्प है या नहीं

वीआईपी को कुछ भी देने के पहले उस चीज की चेंकिंग की जाती है कि उसमें कोई अशुद्धि या मिक्सअप तो नहीं है। इसी प्रकार हमारी बुद्धि के लिये संकल्प एक भोजन है। संकल्परूपी भोजन की चेकिंग जरूरी है, जब बिना चेंकिंग के संकल्परूपी भोजन को ले लेते हैं, तब हम धोखा खा जाते हैं। इसलिये पहले हर संकल्प को श्रेष्ठ संकल्प के आधार पर चेक करें। श्रेष्ठ संकल्प के आधार पर चेक करने से फिर अपनी वाणी और कर्म में लायें। यदि आधार भूल जाते हैं तो संकल्परूपी भोजन में बिष के संस्कार मिक्स हो जाते हैं, जिससे हम मूर्छित हो जाते हैं।

इसलिये हम स्वयं ही अपना चेकर बनें। विशेष व्यक्ति अपनी शान में रहें तो परेशान नहीं होंगे। बुद्धि को इसी कार्य में बिजी रखने के कारण हम व्यर्थ संकल्पों के कम्पलेंट से फ्री हो जाते हैं। अन्यथा अन्य सम्बन्धों मंें बुद्धि का लगाव हमारे लिये विघ्न बन जाता है। लेकिन श्रेष्ठ सम्बन्धों का अनुभव में अपने को बिजी रखने से बुद्धि एक ठिकाने पर स्थिर हो जाती है और उसका भटकना बन्द हो जाता है। कम्पलेंट समाप्त होकर कम्पलीट बन जायेंगी, यह बात सुनने में खुश होते हैं, लेकिन निभाने में मजबूर हो जाते हैं।

अव्यक्त बाप-दादा महावाक्य मुरली 12 अक्टूबर, 1975

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