मनोज श्रीवास्तव जी की कलम से ..

हमें सदैव अपनी बुद्धि पर अटेन्शन का पहरा रखना चाहिए। माया हमें योग में नही रहने देती है। माया पहला वार हमारी बुद्धि पर करती है और बुद्धि का कनेक्शन तोड देती है। जैसे जब कोई दुश्मन वार करता है तब पहले टेलीफोन, रेडियों आदि के कनेक्शन तोड देता है और लाईट, पानी, का कनेक्शन काट देने के बाद फिर वार करता हैं। इसी प्रकार माया पहले हमारे बुद्धि का कनेक्शन ईश्वरीय शक्ति से तोड देती है। इसके बाद वहाॅ से मिलने वाली लाईट, माईट, शक्तियाॅ और ज्ञान का संग हमें मिलना हमें आटोमैटेकली बन्द हो जाता है।

बुद्धि पर अटेन्शन रखना जरूरी होता है। अर्थात हम जहाॅ चाहे वहाॅ अपनी बुद्धि को ले जायॅ और वहाॅ स्थित हो जायॅ। जैसे अभी किसी विषय पर संकल्प किया और उस एक संकल्प पर जब तक चाहें स्थित रहें। इसे कहते है संकल्प शक्ति को कन्ट्रोल करना। हम संकल्प के रचियता है इसलिए हम संकल्प के मालिक है न कि गुलाम। अर्थात जितना समय जो संकल्प चाहें उतना ही वह संकल्प चले।

हम जहाॅ बुद्धि लगना चाहें वहाॅ बुद्धि लगा सकें। इसके अनुसार अपना प्रोग्राम बनाये और अपने को चैक करें कि हम कितने देर अपने एक संकल्प पर स्थित रहते है।
हटयोगी एकाग्र होकर अपनी एक टाॅग पर एक समय निश्चित करके खडा जो जाता है। लेकिन कर्मयोग में यह राॅग तरीका है। सही तरीके के अन्तर्गत बुद्धि में एक संकल्प धारण करके बैठ जायॅ। लेकिन हटयोग में उसकी उल्टी कापी करके एक टाॅग पर खडे हो जाते है। अर्थात एक संकल्प में स्थित हो जाना ही एक टाॅग पर खडे हो जाना हैं।

जब एक संकल्प, एक स्मृति होगी तब विजय अवश्य होगी। बीज रूप स्मृति रहने पर हर संकल्प की सिद्धि अनुभव करेंगे और हम सिद्ध स्वरूप हो जायेंगे। हम जो सोचेंगे और जो बोलेंगे वही प्रैक्टिकल में करके दिखायेंगे।

संकल्प शक्ति को कन्ट्रोल करने पर हम कार्य की सिद्धि को प्राप्त कर लेते है। एक संकल्प और एक विचार पर स्थित होकर कर्म क्षेत्र में कर्मयोगी बन कर कार्य कर सकते है। कर्मयोगी अर्थात आत्मिक रूप में स्थित होकर कर्म करना है। अर्थात ईगो से दूर रहकर डिटैच भाव से कर्म करना है।
हम कर्म के बिना एक सेकेण्ड नही रह सकते है। हमें सांस लेने के लिए भी कर्म करना पडता है। यदि हम योग में रहकर कर्म करें तब कर्मेन्द्रियों द्वारा अनाप सनाप कर्म नही होंगे। इसी प्रकार हमारे सभी कार्य नेचुरल और सहज रूप में होते रहेगे। योग के बिना कर्म करने में मेहनत लगती है जबकि योगयुक्त रह कर कर्म करने में मेहनत का अनुभव नही होता है।

यदि हमारा कर्म में योग नही लगता है तब इसका अर्थ है कि अवश्य ही हमारी इन्द्रियॅा अल्प काल के सुख के लिए परेशान रहती है। अल्प काल के सुख की प्राप्ति सदा काल के सुख की प्राप्ति से वांचित करा देता है। यदि हम योग भूल जाते है तब अपना अधिकार भी भूल जाते है। अव्यक्त बाप दादा महावाक्य मुरली 16 अक्टूबर 1975

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